November 23, 2024     Select Language
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गजब की खूबसूरती है यहां की कला में

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कोलकाता टाइम्स 

स्थापत्य कला की दृष्टि से विश्व की अति सुन्दर इमारतों में शामिल किये जाने योग्य इस प्राचीन भवन का निर्माण 1152−53 ईस्वी में चौहान नरेश विग्रहि राज चतुर्थ ने कराया था। ऐसा भी माना जाता है कि उक्त भवन 1075 ई. में तत्कालीन चौहान नरेश (दुर्लभ राज तृतीय अथवा विग्रह राज तृतीय) के समय निर्मित हुआ था। मूलतः यह महाविद्यालय का भवन था (सरस्वती कण्ठा भरण) किन्तु तराइन के दूसरे युद्ध 1192 में पृथ्वीराज चौहान तृतीय के हार जाने के बाद अजमेर में व्यापक स्तर पर तोड़फोड़ की गई और इस भवन को भी बहुत नुकसान पहुंचाया गया। इसे मस्जिद में बदलने का कार्य कुतुबुद्दीन एबक ने किया जो 1199 ई. तक चलता रहा। उन्नीसवीं सदी में यहां पंजाब से आकर कोई संत (पंजाब शाह बाबा) रहने लगे और यहां उसका देहान्त हो गया। उनका उर्स मनाने के लिए फकीर गण यहां ढाई दिन तक रहने लगे और तभी से यह प्राचीन विद्यालय भवन ढाई दिन का झोंपड़ा कहा जाने लगा। सन् 1909 में खुदाई के दौरान इस भवन के प्रांगण में एक शिवलिंग मिला है। सन् 660 ई. के आस−पास वीरम काला नामक व्यक्ति ने अजमेर के इसी क्षेत्र में एक विशाल जैन मंदिर बनवाया था किन्तु उसकी वास्तविकता ज्ञात नहीं है और उस समय की गई व्यापक तोड़−फोड़ के परिणाम स्वरूप उक्त मंदिर का भी नामोनिशान मिट गया, वैसे ही जैसे अजयराज चौहान द्वितीय द्वारा बनवाये गये अनेक मंदिर व भवन भी मुस्लिम सैनिकों ने मिट्टी में मिला दिये। ऐसी तोड़−फोड़ में बरबाद हुए हिन्दू मंदिरों, भवनों का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि जो चौहान कालीन शानदार झील बीसल सर और उसके चतुर्दिक महल−मंदिर बादशाह जहांगीर के अजमेर प्रवास के समय (1613−16) तक विद्यमान थे, वे सब आज कहीं भी देखने को नहीं मिलते। अतः सरस्वती काण्ठाभरण भी उसी तोड़−फोड़ के परिणाम स्वरूप खण्डहरों में बदल गया।

मूलतः यह भवन 254 वर्ग फीट की लगभग 15 फीट ऊंची चौकोर चौकी पर लाहित पीत वर्णी पत्थरों से बना हुआ है। मुख्य द्वार (पूरब में) पर चार झरोखे थे जिनमें तीन अभी देखे जा सकते हैं। एक विशाल द्वार दक्षिण में था जो टूटी−फूटी अवस्था में अभी भी है। इस तरफ दो मंजिलों में द्वार के दोनों तरफ दीवार में आश्रम थे जिनमें पहली मंजिल पर छत आश्रम भग्नावस्था में अभी भी है। मुख्य द्वार के दोनों तरफ वाले आश्रमों में अभी इसी भवन के मग्नावशेष (कलात्मक स्तंभ व पत्थर) सुरक्षित रखे हुए हैं। बांई तरफ के समस्त निर्माण लुप्त हो गये हैं, केवल 8−10 फीट चौड़ी दीवार शेष है। प्रांगण में चार चबूतरे हैं जिन पर भी भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं व कुछ कब्रें (बाद की बनी हुई) हैं।
मुख्य द्वार के बिल्कुल सामने पश्चिम दिशा में पहले सरस्वती भवन था। यहां लगभग 84 फीट ऊंचे स्तम्भ यथावत हैं। इस भवन की छत नयनाभिराम है जिसमें पांच विशाल गुम्बद कलात्मक स्तंभों पर (70 स्तंभ) दर्शनीय हैं। पांच पंक्तियों में विभक्त स्तंभों की पहली पंक्ति पश्चिमी दीवार में धंसी हुई है। इस दीवार पर छह छोटे एवं एक बड़ा मेहराब बना है।

यह मेहराब मुस्लिम काल का है तथा उस पर कुरान की आयतें उत्कीर्ण हैं। इसी मेहराब में एक मेम्बर (धर्म गुरु के खड़े रहने का स्थान) है। गुम्बदों के भीतरी भागों पर बारीक स्थापत्य और इसी भांती इनके दोनों तरफ अनके ब्लाक्स (आलेनुमा चौकोर) में विविध आकारों का उत्कीर्ण मनमोहक है। भवन के पूरब की तरफ साढ़े ग्यारह फीट मोटी स्क्रीन वाली दीवार में सात खूबसूरत मेहराब हैं। मुख्य मेहराब 22 फीट 3 इंच चौड़ी और इसके दोनों तरफ वाली तीन−तीन मेहराब साढ़े पांच इंच चौड़ी हैं। इस दीवार पर भी कुरान की आयतों के अलावा बारीक उत्कीर्ण अरबी शैली के हैं।
यह कलात्मक दीवार 185 फीट लम्बी और 56 फीट ऊंची है। कर्नलटॉड ने इस परिवर्तित मस्जिद रूप को अरबी शैली का शानदार नमूना कहा है जबकि जनरल कनिंधम इसे भारतीय शिल्पकला का कमाल कहते हैं।


यहां पर 1857 ई. में की गई खुदाई में अरबी, संस्कृत, हिन्दी के अनेक शिलालेख व पटि्टयां मिली हैं। भूरी शिलाओं पर उत्कीर्ण लिपी देवनागरी में है। अरबी भाषा का पुराना शिलालेख 1199 ई. का इमामसाह संगमरमरी पर है। इस प्रकार सरस्वती भवन एतिहासिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

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