July 2, 2024     Select Language
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जल्द ही दुनिया से गायब हो जायेंगे 37 करोड़ आदिवासी समुदाय, यह है वजह 

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कोलकाता टाइम्स 
दुनिया भर में रहने वाले 37 करोड़ आदिवासी और जनजाति समुदायों के सामने अस्तित्व का खतरा आन खड़ा हुआ है। वजह है हमारी लालच। जिस गति से जंगलों का काटा जा रहा है उससे इनके लिए रहने  ही जगह ही नहीं बची। हालाँकि वे धरती पर जैव विवधता वाले 80 प्रतिशत इलाके के संरक्षक हैं लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लोभ, हथियारबंद विवाद और पर्यावरण संरक्षण संस्थानों की वजह से बहुत से समुदायों की आजीविका खतरे में हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग का असर हालात को और खराब कर रहा है।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार वे 90 देशों में फैली हैं, 5,000 अलग अलग संस्कृतियां और 4,000 विभिन्न भाषाओं से संपन्न होने के बाद भी जनजाति समुदाय मिटने के कगार पर हैं।  चाहे वे ऑस्ट्रेलिया में रहते हों, जापान में या ब्राज़ील में। उनका जीवन दर कम है, गैर आदिवासी समुदायों की तुलना में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कम है। उनकी आबादी दुनिया की 5 प्रतिशत है लेकिन गरीबों में उनका हिस्सा 15 प्रतिशत है।
विभिन्न समुदायों की सबसे बड़ी चुनौती ये हैं कि उनकी पुश्तैनी जमीन चीन लेना।औपनिवेशिक काल में जमीनों को हड़पने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज भी जारी है। विवाद और हिंसा की वजह से भी उनकी जमीन हड़पी जा रही हैं और वे रिफ्यूजी बन रहे हैं।
एक मिसाल दक्षिणी ब्राजील का गुआरानी समुदाय है जिन्हें पशुपालन और गन्ने की खेती के लिए उनकी जमीन से खदेड़ दिया गया है। पता चला है कि इस समुदाय में आत्महत्या की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है और उस इलाके की जैव विविधता पूरी तरह खत्म हो गई है।
आदिवासी अधिकारों पर एशिया में भी विवाद हो रहा है, जहां दुनिया की 70 प्रतिशत आदिवासी आबादी रहती है। आदिवासी मामलों के अंतरराष्ट्रीय कार्यदल के अनुसार मलेशिया का बजाऊ लाउट ग्रुप बंजारा समुदाय है जो आजीविका के लिए समुद्र पर निर्भर है। जहां वे मछली पकड़ रहे थे वह इलाका 2004 में तून सकारान मरीन पार्क बना दिया और 2009 से वहां मछली मारने पर पाबंदी है। ऑस्ट्रेलिया के वोलोनगोंग यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार इससे उनके पोषण और खाद्य सुरक्षा पर असर पड़ा है।
स्वनिर्णय का अधिकार : आदिवासी समुदायों के लिए खुद फैसले लेने का अधिकार बहुत मायने रखता है। अभी तक अंतरराष्ट्रीय तौर पर इस पर भी सहमति नहीं है कि आदिवासी की क्या व्याख्या है। इस शब्द का इस्तेमाल 2007 में संयुक्तराष्ट्र की घोषणा में किया गया और तब से दुनिया भर में आदिवासी समुदाय दिखने लगे हैं।
सरकारों को आदिवासी समुदायों और जनजातियों के महत्व को स्वीकार करना होगा और उनके साथ बातचीत कर भविष्य का रास्ता तय करना होगा।

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