कोलकाता टाइम्स
छत्तीसगढ के बस्तर के आदिवासी अपने आराध्य आंगादेव को खुश करने देव पर ब्रिटिशकालीन चांदी के सिक्के जड़ते हैं। इस परंपरा के चलते बस्तर के आंगादेव पुराने सिक्कों का चलता फिरता संग्रहालय बन गए हैं। क्षेत्रीय लोगों के अनुसार स्थानीय देवी-देवता के प्रतिरूप को आंगादेव या पाटदेव कहा जाता है। ग्रामीण इनका निर्माण कटहल की लकड़ी से करते हैं, जिसके बाद इन्हें चांदी से तैयार विभिन्न आकृतियों से सजाते हैं। पुराने सिक्कों को टांक कर देव को सुन्दर दिखाने का प्रयास किया जाता है। गिरोला स्थित मां हिंगलाज मंदिर के पुजारी लोकनाथ बघेल ने बताया कि देवी-देवताओं को सोने-चांदी के आभूषण भेंट करना आदिवासियों की पुरानी परंपरा है।
वनांचल में रहने वाले ग्रामीण अब इतने सक्षम नहीं रहे कि वे सोने-चांदी की श्रृंगार सामग्री भेंट कर सकें, इसलिए वे अपने घरों में सहेज कर रखे चांदी के पुराने सिक्कों को मनौती पूर्ण होने पर अर्पित करते हैं। सिक्कों को देवों में जड़ दिया जाता हैं, ताकि चोरी की आशंका नहीं रहे।
आदिवासी समाज के वरिष्ठ सदस्य और पेशे से अधिवक्ता अर्जुन नाग के मुताबिक बस्तर के आंगादेव और पाटदेव पुराने सिक्कों का चलता फिरता संग्रहालय भी हैं। इनमें वर्ष 1818 के तांबे के सिक्के से लेकर 1940-42 में चांदी के सिक्के तक जड़े मिलते हैं। यह शोध का भी विषय है।