January 19, 2025     Select Language
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ऐसी कठोर तपस्या जिसे सोचने पर ही निकल जाये प्राण 

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कोलकाता टाइम्स : 

पस्या या समाधि में बैठना आसान काम नहीं होता है। इसके लिए मजबूत इच्छाशक्ित और मोहमाया को त्यागना पड़ता है। यह कितना कठिन है इसे बौद्ध भिक्षुओं से ज्यादा कोई और क्या जानेगा। जी हां आज हम बात कर रहे हैं बौद्ध भिक्षु के उस अंतिम सफर की….

6 साल तक कठोर तपस्या
ये बौद्ध भिक्षु एक विशेष साधना जिसे Sokushinbutsu कहते हैं। यह साधना आसान नहीं होती है, इसके लिए 6 साल तक कठोर तपस्या करनी पड़ती है। उत्तरी जापान के कई हिस्सों में यह देखने को मिल जाता है। इस साधना को प्राप्त करने के लिए वो सबसे पहले अपने नियमित भोजन का त्याग करते हैं। ये लोग 1000 दिनों तक केवल बीज, फल और बादाम खा कर साधना की शुरुआत करते हैं। इसके साथ प्रतिदिन व्यायाम भी किया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता था, ताकि शरीर से चर्बी घट जाए और साधना में किसी तरह की रुकावट न हो।

फिर पीते हैं जहरीली चाय

पहला चरण पूरा होने के बाद ये भिक्षु जहरीली चाय का सेवन करते हैं। जिससे कि उन्हें लगातार उल्टी होने लगती और शरीर का सारा तरल पदार्थ निकल जाता। ये चाय मरने के बाद भी शरीर से कीटाणुओं को कई सालों तक दूर रखती है।

स्वेच्छा से प्राणों का त्याग
साधना के अंतिम चरण तक पहुंचते ही बौद्ध भिक्षु ख़ुद को एक पत्थर के तुंब के नीचे कैद कर लेते थे और तब तक ध्यान योग करते थे, जब तक उनके प्राण न निकल जाएं। इस तुंब या मकबरे के नीचे एक छोटा-सा पाइप डाला जाता था जिससे भिक्षु को सांस लेने में मदद मिलती थी। इसके नीचे एक घंटी भी लगाई जाती है।

इस घंटी का मतलब था कि जब तक यह बजेगी तब तक भिक्षु जिंदा है। जब घंटी बजनी बंद हो जाती तो तुंब से उस पाइप को निकाल लिया जाता। और इसे सील कर दिया जाता था। इसके 1000 दिनों के बाद उसे खोला जाता और देखा जाता कि क्या भिक्षु अपनी तपस्या (Sokushinbutsu) में सफल हो पाया है या नहीं।

इस पूरी प्रक्रिया में भिक्षु को तभी सफल माना जाता है, अगर वह तुंब खोलने के बाद भी अपनी उसी मुद्रा में बैठा रहे। अगर ऐसा होता है तो उसे नजदीक के मंदिर में स्थापित कर उसकी पूजा-अर्चना की जाती। और जो सफल नहीं हो पाते उन्हें उसी मकबरे के तले में पुन: कैद कर दिया जाता है।

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