समय के साथ माँ बदली यहां भी
कोलकाता टाइम्स :
बदलते वक्त के साथ बड़े पर्दे पर मां के किरदार में भी परिवर्तन आया है। बॉलीवुड में पुराने दौर में जहां मां का किरदार केवल त्याग, बलिदान, परोपकार तक ही सीमित था, वहीं आज की मां इससे बिल्कुल अलग है। वह भावुक होने के साथ प्रैक्टिकल भी है। मां के किरदार को सबसे अधिक किसी ने जीया तो वह हैं निरुपा रॉय। उनका व्यक्तित्व तत्कालिक आदर्श मां का प्रतिरूप हुआ करता था। फिल्म दीवार का मेरे पास मां है.. डायलॉग आज भी उतना ही प्रचलित है जितना उस वक्त था। मशहूर अदाकारा शबाना आजमी कहती हैं कि भारतीय सिनेमा ने मां को हमेशा आदर्शवादी रूप में प्रस्तुत किया है। वह अपने बच्चे के लिए हर परेशानी से लड़ने को तैयार रहती है, लेकिन अब वक्त बदल गया है।
अगर बच्चे मां को दोस्त मान रहे हैं या उनकी सोच को समझ पा रहे हैं तो इसका एक खास कारण यह भी कि मां ने भी खुद को कहीं न कहीं बदला है। फिल्म विकी डोनर में मां डॉली शराब पीती है लेकिन विकी को कोई एतराज नहीं। उसका मानना है कि अगर इतनी मेहनत करने के बाद दो घूंट से उसे खुशी मिलती है तो इसमें कोई हर्ज नहीं। काजोल ने भी माई नेम इज खान में एक ऐसी मां का किरदार निभाया था, जो अपने बच्चे कोपिता की कमी महसूस नहीं होने देती। बॉलीवुड में ऐसी तमाम फिल्में बनी हैं जिसमें मां के किरदार को उभरने का मौका मिला है। सलीम-जावेद की तो कई फिल्में इसका उदाहरण है। साथ ही दूध का कर्ज, मृत्युदंड, एक पल कुछ ऐसी फिल्में हैं जिन्होंने मां की भूमिका को एक मजबूत किरदार के तौर पर पेश किया है। इन सबसे परे मां की भूमिका को सबसे ज्यादा अगर किसी फिल्म ने पहचान दी तो वह है मदर इंडिया।
मदर इंडिया में नर्गिस ने मां के किरदार को नई बुलंदियों तक पहुंचाया। इसके अलावा ममता, आराधना, मासूम भी कुछ ऐसी फिल्में हैं जिसमें मां की सशक्त भूमिका नजर आई। मगर आज पर्दे की माएं आदर्शवाद से दूर वास्तविकता के ज्यादा करीब हैं, जो अपने बच्चों की परेशानी को खुद नहीं ढोती बल्कि उन्हें खुद उनका सामना करने के लिए तैयार करती है।