May 20, 2024     Select Language
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खतरे की घंटी है टॉयलेट में आपका इस ढंग से बैठना 

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कोलकाता टाइम्स :

गर आप ये लेख टॉयलेट में बैठे-बैठे पढ़ रहे हैं और इस चक्कर में आपको ज़्यादा वक़्त लग रहा है तो टॉयलेटसीट पर सही पोज़िशन में बैठ जाइए। ये विषय पहली बार में हास्यास्पद लग सकता है लेकिन ये कोई छोटी बात नहीं है। एक औसत व्यक्ति अपनी पूरी ज़िंदगी में छह महीने से ज़्यादा का वक़्त टॉयलेट में बिताता है और हर साल तक़रीबन 145 किलो मल त्याग करता है। इसका मतलब ये हुआ कि एक औसत व्यक्ति हर साल अपने शरीर के भार के दोगुना मल त्याग करता है। उम्मीद है अब तक आपको ये समझ आ गया कि ये विषय हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है। आप जानते हैं कि टॉयलेट में बैठने का सही तरीक़ा क्या है. ये बात तो तय है कि हममें से हर कोई टॉयलेट में ठीक से नहीं बैठता। 20वीं सदी के मध्य में यूरोपीय डॉक्टरों की एक टीम अफ़्रीका के ग्रामीण इलाक़ों में काम कर रही थी। डॉक्टर ये देख कर हैरान थे कि वहां के स्थानीय लोगों को पाचन और पेट से जुड़ी तकलीफ़ें न के बराबर थीं।
दुनिया के अन्य कई विकासशील देशों में भी ऐसा ही पाया गया। डॉक्टरों ने पता लगाया कि ये सिर्फ़ खाने में अंतर की वजह से नहीं था बल्कि लोगों के टॉयलेट इस्तेमाल करने के तरीक़े और मल त्याग करते समय बैठने की पोज़िशन में अंतर की वजह से भी था. पश्चिमी देशों में लोग जितनी बार टॉयलेट में जाते हैं। औसतन वो वहां 114-130 सेकेंड बिताते हैं। इसके उलट, भारत समेत कई विकासशील देशों में लोग टॉयलेट में उकड़ूं होकर मल त्याग करते हैं और महज़ 51 सेकेंड में निबट लेते हैं. विकासशील देशों के शौचालयों का डिज़ाइन भी ऐसा होता है कि उसे इस्तेमाल करने के लिए आपको उकड़ूं बैठना होता है। विशेषज्ञों का मानना है कि उकड़ूं बैठने वाला तरीक़ा बेहतर है। जब हम टॉयलेट सीट पर बैठते हैं तो हमारी ‘गुदा नलिका’ 90 अंश के कोण पर होती है इस वजह से हमारी मांसपेशियों में खिंचाव होता है. यही वजह है कि हममें से कई लोग टॉयलेट में बैठने पर तनाव महसूस करते हैं। इस तनाव की वजह से कई लोगों को बवासीर, बेहोशी और यहां तक कि दौरे आने जैसी तकलीफ़ें भी हो जाती हैं।
तो फिर हम वेस्टर्न शैली के टॉयलेट क्यों इस्तेमाल करते हैं? ऐसा माना जाता है कि पहला साधारण टॉयलेट सबसे पहले तक़रीबन 6 हज़ार साल पहले मेसोपोटिया में मिला था. सन् 315 तक रोम में 144 सार्वजनिक शौचालय थे और बाथरूम जाना सामाजिक चलन जैसा हो गया था। पहला फ़्लश वाला टॉयलेट साल 1592 में ब्रिटेन के जॉन हैरिंगटन ने बनाया था। उन्होंने इसे ‘द एजैक्स’ का नाम दिया था। इसके बाद वर्ष 1880 में थॉमस क्रैपर ने ‘यू-बेंड’ का आविष्कार किया और इस आविष्कार के साथ बहुत कुछ बदल गया। ‘यू-बेंड’ सीधे टॉयलेट के नीचे से मल निकाल देता था और इससे बदबू नहीं आती थी। इस तरह पाश्चात्य शैली के टॉयलेट यूरोपीय सभ्यता का प्रतीक बन गए लेकिन इससे कुछ चीज़ें मुश्किल भी हो गईं।
सेहत पर ख़तरा हममें से बहुत लोग टॉयलेट सीट पर बैठकर ग़ुस्से में इस तरह दांत भींचते हैं और इतना ज़ोर लगाते हैं कि हमारे नसें सूज जाती हैं और दिल की धड़कनें तेज़ हो जाती हैं। ऐसा क़ब्ज़, बदहज़मी, अपच या पेट की दूसरी दिक्क़तों की वजह से भी हो सकता है। लेकिन कई विशेषज्ञों का मानना है कि यूरोपीयन शैली के टॉयलेट भी ऐसी समस्याओं के लिए काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं।
तो फिर इसका हल क्या है? इतनी सारी बड़ी-बड़ी समस्याओं का बहुत आसान सा हल है। अगर आप यूरोपीय शैली के टॉयलेट में बैठते हैं तो बस इतना कीजिए कि अपने घुटनों को 90 डिग्री के बजाय 35 डिग्री कोण पर मोड़ लीजिए। इससे आपके पेट और गुदा पर ज़ोर कम पड़ेगा और चीज़ें आसान हो जाएंगी। इसके लिए आप टॉयलेट में एक छोटा सा पायदान रख सकते हैं और अपने पैर इस पर टिका सकते हैं। अगर आप जल्दी में या कहीं बाहर नहीं हैं तो गोद में मोटी किताबों का एक बंडल या ऐसी ही कोई चीज़ रख सकते हैं। यानी किताबें और पत्रिकाएं टॉयलेट में भी काम आ सकती हैं!

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