February 22, 2025     Select Language
Editor Choice Hindi KT Popular धर्म

इस प्रकार यह व्रत करने से बचेंगे वैधव्य से 

[kodex_post_like_buttons]

कोलकाता टाइम्स :

श्रावण मास में आशुतोष भगवान शंकर की पूजा का विशेष महत्व है। जो प्रतिदिन पूजन न कर सकें उन्हें सोमवार को शिव पूजा अवश्य करनी चाहिये और व्रत रखना चाहिये। सोमवार भगवान शंकर का प्रिय दिन है, अतः सोमवार को शिवाराधना करना चाहिये। इसी प्रकार मासों में श्रावण मास भगवान शंकर को विशेष प्रिय है। अतः श्रावण मास में प्रति दिन शिवोपासना का विधान है।

श्रावण में पार्थिव शिव पूजा का विशेष महत्व है। अतः प्रति दिन अथवा प्रति सोमवार तथा प्रदोष को शिवपूजा या पार्थिव शिवपूजा अवश्य करनी चाहिये।

इस मास में लघु रुद्र, महारुद्र अथवा अति रुद्र पाठ कराने का भी विधान है। श्रावण मास में जितने भी सोमवार पडते हैं, उन सब में शिव जी का व्रत किया जाता है। इस व्रत में प्रातः गंगा स्नान अन्यथा किसी पवित्र नदी या सरोवर में अथवा विधि पूर्वक घर पर ही स्नान करके शिव मंदिर में जाकर स्थापित शिवलिंग का या अपने घर में पार्थिव मूर्ति बनाकर यथाविधि षोडशोपचार पूजन किया जाता है। यथा सम्भव विद्वान ब्राम्हण से रुद्राभिषेक भी कराना चाहिये। इस व्रत में श्रावण महात्म्य और शिव महापुराण की कथा सुनने का विशेष महत्व है। पूजन के पश्चात ब्राम्हणभोजन कराकर एक बार ही भोजन करने का विधान है। भगवान शिव का यह व्रत सही मनोकामनाओं को पूर्णकरने वाला है।

मंगलागौरी व्रत

श्रावणमास में जितने भी मंगलवार आयें, उन दिनों यह व्रत करके मंगलागौरी का पूजन करना चाहिये। इसमें मंगलवार को गौरी का पूजन किया जाता है। इसलिये यह मंगलागौरी व्रत कहलाता है। यह व्रत विवाह के बाद प्रत्येक स्त्रीको पाँच वर्षों तक करना चाहिये। इसे प्रत्येक श्रावण मास के प्रत्येक मंगलवार को करना चाहिये। विवाह के बाद प्रथम श्रावण में पीहर में तथा अन्य चार वर्षों में पति गृह में यह व्रत किया जाता है।

विधान – प्रातः काल स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त हो नवीन शुद्ध वस्त्र पहनकर रोलीका तिलक कर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख हो पवित्र आसन पर बैठकर निम्न संकल्प करना चाहिये।

‘मम पुत्रपौत्र सौभाग्यवृद्धये श्रीमंगलागौरी प्रीत्यर्थं पंचवर्ष पर्यंतं मंगलागौरी व्रतमहं करिष्ये।‘

ऐसा संकल्प कर एक शुद्ध एवं पवित्र आसन पर भगवती मंगलागौरी की मूर्ति की प्रतिष्ठा करनी चाहिये। फिर उनके सम्मुख आटेसे बना एक बडा सा सोलह मुखवाला सोलह बत्तियों से युक्त घृतपूरित कर प्रज्जवलित करना चाहिये। इसके बाद पवित्रीकरण, स्वस्तिवाचन और गणेशपूजन करें तथा यथा सम्भव यथाशक्ति वरुण- कलशस्थापना, नवग्रहपूजन तथा षोडशमातृकापूजन भी करनेकी विधि है।

इसके बाद ‘ श्रीमंगलागौर्यै नमः’ इस नाम मंत्र से मंगलागौरी का षोडशोपचार पूजन करना चाहिये। मंगलागौरी की पूजा में सोलह प्रकार के पुष्प, सोलह मलायें, सोलह वृक्षके पत्ते, सोलह दूर्वादल, सोलह धतूरे के पत्ते, सोलह प्रकार के अनाज, तथा सोलह पान, सुपारी, इलायची, जीरा और धनिया भी चढायें।

मंगलागौरी के ध्यान का मंत्र इस प्रकार है –

कुंकुमागुरुलिप्तांगा सर्वाभरणभूषताम ।

नीलकण्ठप्रियां गौरीं वंदेहं मंगलाव्हयाम ॥

क्षमा- प्रार्थना तथा प्रणाम के अनंतर मंगलागौरी को विशेषार्घ्य प्रदान करना चाहिये। व्रत करने वाली स्त्री ताँबें के पात्र में जल, गंध, अक्षत, पुष्प, फल, दक्षिणा और नारियल रखकर ताँबें के पात्र को दाहिने हाँथ में लेकर निम्न मंत्र का उच्चारण कर विशेषार्घ्य दें –

पूजासम्पूर्णतार्थं तु गंधपुष्पाक्षतैः सह ।

विशेषार्घ्यं मया दत्तो मम सौभाग्यहेतवे ॥

‘श्रीमंगलागौर्यै नमः’ कहकर अर्घ्य दें और प्रणाम करें। लड्डू, फल, वस्त्र के साथ ब्राम्हण को दान करना चाहिये ।

इसके बाद व्रतकर्ती को अपनी सासजी के चरण स्पर्श कर उन्हें सोलह लड्डुओं का वायन देना चाहिये। फिर सोलहमुख वाले दीपक से आरती करें। रात्रि जागरण करें एवं प्रातःकाल किसी तालाब या नदी में गौरी का विसर्जन कर दें ।

व्रत की कथा

कुण्डिन नगर में धर्मपाल नामक एक धनी सेठ रहता था। उसकी पत्नि सती, साध्वी एवं पतिव्रता थी। परंतु उनके कोई पुत्र नहीं था। सब प्रकार के सुखों से समृद्ध होते हुए भी वे दम्पति बडे दुखी रहा करते थे। उनके यहाँ एक जटा- रुद्राक्षमालाधारी भिक्षुक प्रति दिन आया करते थे। सेठानी ने सोचा कि भिक्षुक को कुछ धन आदि दे दें, सम्भव है इसी पुण्य से मुझे पुत्र प्राप्त हो जाय। ऐसा विचार कर पति की सम्मति से सेठानी ने भिक्षुक की झोली में छिपाकर सोना डाल दिया। परंतु इसकापरिणाम उल्टा ही हुआ। भिक्षुक अपरिग्रहव्रती थे, उन्होंने अपना व्रत भंग जानकर सेठ सिठानी को संतानहीनता का शाप दे डाला।

फिर बहुत विनय करने से उन्हें गौरीकी कृपा से एक अल्पायु पुत्र प्राप्त हुआ। उसे गणेश ने सोलहवें वर्ष में सर्प दंशका शाप दे दिया। परंतु उस बालक का विवाह ऐसी कन्या से हुआ, जिसकी माता ने मंगलागौरी व्रत किया था। उस व्रत के प्रभावसे उत्पन्न कन्या विधवा नहीं हो सकती थी। अतः वह बालक शतायु हो गया। न तो उसे साँप ही डँस सका और न ही यमदूत सोलहवें वर्ष में उसके प्राण ले जा सके।

इसलिये यह व्रत प्रत्येक नवविहाता को करना चाहिये। काशी में इस व्रत को विशेष समारोह के साथ किया जाता है।

उद्यापन विधि

चार वर्ष श्रावण मास के या बीस मंगलवारों का व्रत करने के बाद इस व्रत का उद्यापन करना चाहिये। क्योंकि बिना उद्यापन के व्रत निष्फल होता है। व्रत करते हुए जब पाँचवाँ वर्ष प्राप्त हो तब श्रावण मास के मंगलवारों में से किसी भी मंगलवार को उद्यापन करें। यथाविधि कलश की स्थापना करें तथा कलश के ऊपर यथाशक्ति मंगलागौरी की मूर्ति की स्थापना करें। तदनंतर गणेशादिस्मरण पूर्वक ‘श्रीमंगलागौर्यै नमः’ इस नाम मंत्र से गौरी की यथा शक्ति पूजा कर सोलह दीपकों से आरती करें। मंगलागौरी को सभी सौभाग्यद्रव्यों को अर्पित करना चाहिये।

दूसरे दिन यथा सम्भवहवन करवायें और सोलह ब्राम्हणों को या खीर आदि का भोजन कराकर संतुष्ट करें। उत्तम वस्त्र तथा सौभाग्यपिटारी का दक्षिणा के साथ दान करें। इसी प्रकार अपनी सासजी के चरण स्पर्श कर उन्हें भी चाँदी के एक एक बर्तन में सोलह लड्डू, आभूषण, वस्त्र तथा सुहाग पिटारी दें। अंत में सबको भोजन कराकर स्वयं भी भोजन करें। इस प्रकार व्रतपूर्वक उद्यापन करने से वैधव्य की प्राप्ति नहीं होती।

Related Posts