लाठियों की गड़गड़ाहट से यहां जुड़ते हैं दिल
कोलकाता टाइम्स :
बुंदेलखंड का दिवारी नृत्य ऐसी अनूठी परंपरा है जिसमें लाठियों की तड़तड़ाहट से दिल टूटते नहीं बल्कि जुड़ते हैं। गांवों में दशहरा के बाद इस नृत्य का अभ्यास शुरू हो जाता है। मोर पंखी लगाकर इस विधा के पारंगत युवा, वृद्ध, बच्चे 18 से 20 की संख्या में नृत्य शुरू करते हैं। ढोल नगडि़या के बजते ही जोश भर जाता है और फिर लाठियों के साथ खिलाड़ी एक-दूसरे पर वार करते हैं।
दिवारी नृत्य द्वापर युग में कंस वध के बाद भगवान श्रीकृष्ण द्वारा ग्वालबालों संग मनाई गई खुशी से जुड़ा है। यूं तो गांव में इसकी शुरुआत भादौं की पंचमी को मैकेस्वर [ग्राम देवता] की पूजा अर्चना से शुरू होती है। दशहरे के दिन से हर गांव में दो से तीन टोलियों का अभ्यास शुरू हो जाता है। दिवारी यहां की सांस्कृतिक विरासत में रची बसी है। हर गांव में टोलियां बनी है जिसमें बच्चे जुड़ते जाते हैं और पीढि़यों से यह परंपरा चली आ रही है।
दीपावली में आतिशबाजी कर रोशनी करने में जब सब लोग मशगूल रहते हैं उस समय ये दीवाने दिवारी नृत्य करते हैं। सावन सजी कजलिया, भादौं सजे पुछार, कार्तिक में सजे मौनिया, लहे गौर की पूछ, दूध पीके आई दिवारी, बैठी बरा की डाल, आवत-आवत बहुत दिन लागै, जातौ न लागे देयार चित्रकूट में रम रहे रहिमन अवध नरेश, जापर विदा परत है सो आवत यहि देश जैसे दोहों और लोक गीतों की जुगलबंदी के साथ दिवारी खेल की शुरुआत होती है फिर ढोल नगडि़या बजती है। कंधे मटकाते, बलखाते इस खेल के माहिर खिलाड़ी मोर पख लेकर मैदान मे कूद पड़ते हैं। एक स्वर में 18 जन की समवेत स्वर लहरी निकलती है और फिर लट्ठ मार दिवारी शुरू होती है। एक नहीं 36 विधाओं का यह खेल अनोखा है। पहले छोटी लाठियों से फिर बड़ी लाठियों से खेल खेला जाता है।