June 30, 2024     Select Language
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पंछी डूबे दर्द में

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-सत्यवान ‘सौरभ’
बदल रहे हर रोज ही, हैं मौसम के रूप ।
सर्दी के मौसम हुई, गर्मी जैसी धूप ।।
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सूनी बगिया देखकर, ‘तितली है खामोश’ ।
जुगनूं की बारात से, गायब है अब जोश ।।
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आती है अब है कहाँ, कोयल की आवाज़ ।
बूढा पीपल सूखकर, ठूंठ खड़ा है आज ।।
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जब से की बाजार ने, हरियाली से प्रीत ।
पंछी डूबे दर्द में, फूटे गम के गीत ।।
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फीके-फीके हो गए, जंगल के सब खेल ।
हरियाली को रौंदती, गुजरी जब से रेल ।।
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नहीं रहे मुंडेर पर, तोते-कौवे-मोर ।
लिए मशीनी शोर है, होती अब तो भोर ।।
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अमृत चाह में कर रहे, हम कैसे उत्थान ।
जहर हवा में घोलते, हुई हवा तूफ़ान ।।
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बेचारे पंछी यहाँ, खेलें कैसे खेल ।
खड़े शिकारी पास में, ताने हुए गुलेल ।।
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सूना-सूना लग रहा, बिन पेड़ों के गाँव ।
पंछी उड़े प्रदेश को, बांधे अपने पाँव ।।
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रोज प्रदूषण अब हरे, धरती का परिधान ।
मौन खड़े सब देखते, मुँह ढाँके हैरान ।।
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हरे पेड़ सब कट चले, पड़ता रोज अकाल ।
हरियाली का गाँव में, रखता कौन ख्याल ।।
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शहरी होती जिंदगी, बदल रहा है गाँव ।
धरती बंजर हो गई, टिके मशीनी पाँव ।।
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वाहन दिन भर दिन बढ़े, खूब मचाये शोर ।
हवा विषैली हो गई, धुआं चारों ओर ।।
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बिन हरियाली बढ़ रहा, अब धरती का ताप ।
जीव-जगत नित भोगता, कुदरत के संताप ।।
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जीना दूभर है हुआ, फैले लाखों रोग ।
जब से हमने है किया, हरियाली का भोग ।।
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सच्चा मंदिर है वही, दिव्या वही प्रसाद ।
बँटते पौधे हों जहां, सँग थोड़ी हो खाद ।।
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पेड़ जहां नमाज हो, दरख़्त जहां अजान ।
दरख्त से ही पीर सब, दरख्त से इंसान ।।
(सत्यवान सौरभ के दोहा संग्रह तितली है खामोश से साभार)

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