यह बनना है तो जीते जी खुद का पिंडदान करने पड़ते हैं
साधु-संतों की एक बिरादरी है नागा साधुओं की. नागा साधु के नाम से ही जाहिर है कि वे निर्वस्त्र रहते हैं. पुरुषों की तरह महिला नागा साधु भी होती हैं लेकिन इनके लिए नियम थोड़े अलग होते हैं.
पुरुषों की तरह महिला नागा साधु निर्वस्त्र नहीं रहती हैं. बल्कि वे गेरुए रंग का एक वस्त्र धारण करती हैं, जो बिना सिला होता है. इसे गंती कहते हैं. महिला नागा साधुओं को एक ही वस्त्र पहनने की अनुमति होती है. साथ ही वे तिलक लगाती हैं और जटाएं धारण करती हैं.
नागा साधु बनने से पहले इन महिलाओं को कठिन तप और साधना करनी पड़ती है. वे गुफा, जंगलों, पहाड़ों आदि में रहकर साधना करती हैं, भगवान की भक्ति में लीन रहती हैं.
महिला नागा साधु बनने से पहले परीक्षा के तौर पर 6 से 12 साल तक सख्त ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है. इसके बाद ही गुरु उसे नागा साधु बनने की अनुमति देते हैं.
महिला नागा साधुओं को दीक्षा लेने से पहले अपना सिर मुंडवाना पड़ता है. उसे इसमें बहुत दर्द झेलना पड़ता है. दुनिया से दूर रहकर तप करना पड़ता है. हर पहलू पर आंका जाता है ताकि यह समझा जा सके कि वह आगे भी इस कठिन रास्ते पर चल पाएगी या नहीं. महिला नागा साधु बनने से पहले महिला संन्यासिनी को सारे सांसारिक बंधन तोड़ने पड़ते है. इसके लिए उसे जीते जी अपना पिंडदान तक करना पड़ता है. यानी कि उसने जो जिंदगी बिताई है वो उसे खत्म करके नए जीवन में प्रवेश कर रही है. हिंदू धर्म में पिंडदान मरने के बाद उसके परिवारजन ही करते हैं.
महिला नागा साधु हमेशा दुनिया से दूर एकांत में जीवन बिताती हैं, वे कुंभ जैसे खास मौकों पर ही पवित्र नदियों में स्नान करने के लिए दुनिया के सामने आती हैं.
महिला नागा साधुओं को भी पुरुष नागा साधुओं की तरह सम्मान मिलता है. उन्हें माता कहकर संबोधित किया जाता है.