पारस के जज्बात
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”आत्मज्ञान कैसे फलित होता है”
जहाँ मन की अक्रिया की अवस्था होती, आत्मज्ञान वहीं फलित होता है।
इस अवस्था में भावना और बुद्धि सामान्य हो जाती और शुद्धता रह जाती है। भावना अंतर चेतन की आवाज है और बुद्धि मन की आवाज है।
जहाँ देखना और सुनना होता, सुंदरता का अनुभव होता है। जहाँ भावना अंतर हो जाती है, वहां हम खिलने लग जाते और जहाँ बुद्धि काम करती वहां मन चंचल हो जाता है। वहां मन में विचार उत्पन्न होने लगते हैं। यह मन की चंचलता, भावों में खिलना हमें आत्मा के स्वरूप से दूर ले जाती है।
जब मन और अंतर चेतन एक हो जाते, हर क्रिया शुन्य हो जाती, शुद्ध हो जाती, यही शुद्धता ही अक्रिया की अवस्था है।
यह अक्रिया ही आत्मा का स्वरूप है, जहाँ आत्मा सिर्फ जानना और देखना ही अनुभव करती है। यही अवस्था हमें सत्य की पहचान कराती और सत्य का आचरण ही आत्मज्ञान है।
यह भी अपने को समझना चाहिये कि अक्रिया की अवस्था में चरित्र लुप्त रहता, कर्म बंधन से भी मुक्त है, पाप और पुण्य से भी मुक्त होती है। क्या बुरा, क्या अच्छा, ऐसा कोई चिंतन नहीं रहता। पूर्ण आत्मज्ञान के बिना हम सिद्ध नहीं हो सकते ना ही जीवन-मृत्यु से मुक्त हो सकते हैं।
इस अक्रिया की अवस्था ही समाधी है, एक तरह से ध्यान की अवस्था है, जहाँ योग से हम वियोग में प्रवेश करते हैं, जहाँ अपनी ऊर्जा एक स्पंदन के रूप में, जिसकी तरंगे इस प्रकृति में निरन्तर बहती रहती है, जो अनन्त है, इस ऊर्जा में बहने लग जाती है और आत्मा आनंदमय हो जाती है। जो आत्मज्ञान का पूर्ण स्वरुप है।
”जहाँ जानना और देखना, वहीं आत्मज्ञान,
जहाँ सोचना, अनुभव करना चरित्र अवदान।”