घर में जो अशुभ उसी खंडित प्रतिमा की यहां होती है पूजा
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कोलकाता टाइम्स :
पत्थरों का शहर कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश के ललितपुर को यहां की हजारों साल पुरानी पौराणिक मूर्तियों के लिए भी पहचाना जाता है। उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर बसे बुंदेलखण्ड के इस जनपद में आज भी कई अनछुए इलाके ऐसे हैं, जहां ये कलात्मक देव-मूर्तियां पर्यटकों की बाट जोह रही हैं। खास बात यह कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में करोड़ों रुपये कीमत होने के चलते इन मूर्तियों पर जहां तस्करों का खतरा मंडरा रहा है, वहीं पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित किए जाने के बाद भी इन मूर्तियों के गढ़ रणछोड़ धाम में विकास कार्य शून्य है और प्राचीन काल का यह ऐतिहासिक क्षेत्र आज भी उपेक्षित है।
ललितपुर से 50 किलोमीटर दूर जाखलौन इलाके में घने जंगलों के बीच बना रणछोड़ जी मंदिर हजारों वर्षो से लोगों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। विश्व के तमाम प्राचीन मंदिरों में जहां भगवान की एकल प्रतिमा स्थापित है, वहीं इस मंदिर में स्थापित गरुड़ पर विराजमान विष्णु भगवान की दुर्लभ मूर्ति के अलावा शिव-पार्वती और कृष्ण की खास पाषाणकाल की 23 मूर्तियां इसे बेहद विशिष्ट बनाती हैं। पुरातत्व विभाग के मुताबिक लगभग 12वीं शताब्दी के इस प्रस्तर मंदिर में तलछंद योजना की दृष्टि से अर्धमण्डप, मण्डप तथा गर्भगृह का विधान है। ऊध्र्वछंद योजना की दृष्टि से इस मंदिर में अधिष्ठान, समतल छत आदि का प्रावधान है, जिसके ऊपर उत्तर मध्यकाल में निर्मित गुम्बद बना हुआ है। ललाटविम्ब पर गरुड़ारूढ़ विष्णु की प्रतिमा है। गर्भगृह के मध्य में विभिन्न अस्त्र-शस्त्र सें से युक्त चतुर्दशभुजी विष्णु यानी रणछोड़ की गरुड़ारूढ़ प्रतिमा स्थापित है।
दोनों पाश्र्वो में शंखधारी और चक्रधारी की मूर्तियों के अलावा दोनों ओर अनुचर दर्शाए गए हैं। इसके अलावा गर्भगृह में प्रतिष्ठित दूसरी उमा-महेश की युगल प्रतिमा भी बेहद अनमोल और कलापूर्ण है। इतिहासकारों के मुताबिक यह पंचायत शैली का बेहद खास मंदिर है और मध्यकालीन वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है। मंदिर से थोड़ी दूर पर विश्व विख्यात मचकुंद गुफा है। रणछोड़ धाम के पुजारी अयोध्या प्रसाद गोस्वामी ने आईपीएन को बताया कि मान्यता है कि दैत्य काल्यावन से युद्ध के दौरान भगवान कृष्ण भागकर यहां आए थे। उनका पीछा करते-करते काल्यावन यहां पहुंचा, तब भगवान कृष्ण गुफा में तपस्या में लीन महाराज मचकुंद पर अपना पीतांबर डालकर छिप गए। काल्यावन ने जैसे ही पीतांबर खींचा, महाराज मचकुंद को मिले वरदान के अनुसार उनकी दृष्टि पड़ते ही काल्यावन भस्म हो गया।
मध्यकाल की इन अनमोल मूर्तियों को पुरातत्व विभाग ने भी संरक्षित स्मारक घोषित कर रखा है। बावजूद इसके सुरक्षा व्यवस्था की खामियों के चलते वर्ष 1990 में प्रमुख प्रतिमा की गर्दन चोरी हो गई थी। उस समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत 22 करोड़ रुपये आंकी गई थी। आठ साल बाद गर्दन वापस मिली और उसे मूर्ति में लगाकर प्रतिमा दोबारा प्रतिष्ठित की गई।
हिंदू धर्म में खंडित मूर्ति की पूजा वर्जित है, मगर रणछोड़ धाम इसका प्रत्यक्ष अपवाद है, जहां आज भी भगवान विष्णु की प्रतिमा में गर्दन पर उसके काटे जाने का निशान साफ देखा जा सकता है। इतना सबकुछ होने के बाद भी यह सिद्धस्थल पुरातत्व विभाग और पर्यटन विभाग की जबरदस्त उपेक्षा झेल रहा है। अब जागरूक लोगों ने पर्यटन विकास यात्रा समिति का गठन कर इन पौराणिक महत्व व ऐतिहासिक क्षेत्रों के विकास का बीड़ा उठाया है। मान्यताओं के अनुसार, भगवान कृष्ण चूंकि इस स्थान पर युद्ध (रण) छोड़कर आए थे, इसलिए तभी से उनका नाम रणछोड़ पड़ गया। वहीं कई विद्वान इसे भगवान कृष्ण की बेजोड़ कूटनीति और रणकौशल का परिचय मानते हैं। उनके मुताबिक धर्म की रक्षा के लिए उठाया गया हर कदम जायज है, भले ही इसके लिए कूटनीति का सहारा क्यों न लेना पड़े।