सेना के साथ रणक्षेत्र में आते थे नृसिंह देव भी, ऐसी है महिमा
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कोलकाता टाइम्स
आप इंदौर घूमने जाये और नृसिंह देव का दर्शन न करे तो आपका घूमना बेकार। कुछ ऐसी ही शान है इंदौर के पश्चिमी क्षेत्र में बने नृसिंह मंदिर की। इस मंदिर की वजह से पूरे क्षेत्र का नाम हुआ नृसिंह बाजार! होलकर सेना के कुलदेवता मल्हारी मार्तंड की प्रतिमा के समान ही इस मंदिर की नृसिंह प्रतिमा को भी रणक्षेत्र में ले जाया जाता था। विजय पाने की आकांक्षा से इन इष्टदेवों की पूजा के बाद ही युद्ध का शंखनाद हुआ करता था।
युद्ध से लौटने के बाद यह प्रतिमा पुनः प्रतिष्ठित कर दी जाती थी। नृसिंह मंदिर उस जमाने में सरकारी लश्करी मंदिर के नाम से मशहूर था। यूं इस मंदिर की स्थापना 17वीं शताब्दी में यहां छोटी-सी बस्ती के लोगों ने की थी, लेकिन 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में इसका जीर्णोद्धार यशवंतराव प्रथम, जो कि होलकर मदीना के नाम से अधिक विख्यात थे, ने करवाया। उन्होंने उसी समय मंदिर के स्वामी बिरदीचंदजी महाराज के नाम सनद जारी की और सारे अधिकार भी उन्हें ही सौंप दिए।
नृसिंह जयंती हर वर्ष वैशाख सुदी शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को नृसिंह बाजार स्थित प्राचीन नृसिंह मंदिर में धूमधाम से मनाई जाती है।
नृसिंह जयंती कब व कैसे प्रारंभ हुई, इस बारे में क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इसका सूत्रपात लगभग 150 वर्ष पहले हुआ। मंदिर की स्थापना के बाद पूजा-अर्चना का दायित्व जिन पुजारियों को सौंपा गया, संभवतः वे नागौर (राजस्थान) के थे। चूंकि नागौर में भगवान नृसिंह जयंती व्यापक पैमाने पर मनाई जाती है अतः उसी से प्रेरणा लेकर पुजारियों ने भगवान नृसिंह के स्वर्ण परत वाले मुखौटे के साथ ही महाराजा हिरण्यकश्यप, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, हनुमान, गरूड़, सुग्रीव व होलिका के मुखौटे भी तैयार करवाए। ये सभी करीब 250 साल पुराने हैं।
इनका निर्माण लुगदी, मिट्टी, इमली के बीज (चिंया) व सरेस से होता है, मगर अब फाइबर के मुखौटे भी तैयार कर लिए गए हैं, क्योंकि ये धारण करने में भी हल्के होते हैं। इस तरह शहर के पश्चिमी क्षेत्र में नृसिंह उत्सव का श्रीगणेश हुआ। वर्तमान में पुजारी परिवार की पीढ़ी-दर-पीढ़ी मंदिर में सेवारत है।
मंदिर की स्थापना के बारे में किंवदंती है कि इसका निर्माण यशवंतराव होलकर चतुर्थ (एकाक्षी) ने करवाया था।