कैसे एक वेश्या ने इस सन्यासी को मन और तन से पूर्ण संन्यासी बनाया
अपनी नई सोच और विचारों से केवल भारत के ही नहीं बल्कि दुनिया लोगों का दिल जीतने वाले अध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद के बारे में काफी कहानियां प्रचलित हैं।
कहा जाता है कि जयपुर के पास एक छोटी सी रियासत थी, जहां विवेकानंद मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित हुए थे। इस रियासत के राजा ने स्वामी जी के स्वागत के लिए एक जलसे का आयोजन किया जहां उन्होंने बनारस से एक प्रसिद्ध वेश्या को खास गाने के लिए बुलाया लेकिन जब स्वामी जी को ये बात पता चली उन्होंने समारोह में ही जाने से मना कर दिया।
‘प्रभु जी मेरे अवगुण चित न धरो…’ गाना गाया
क्योंकि उन्हें लगा कि एक संन्यासी को वेश्या का गाना नहीं सुनना चाहिए लेकिन जब यह खबर वेश्या तक पहुंची कि राजा ने जिस महान विभूति के स्वागत समारोह के लिए उसे बुलाया है, उसकी वजह से वह इस कार्यक्रम में भाग लेना ही नहीं चाहते तो वह काफी आहत हुई और उसने सूरदास का एक भजन, ‘प्रभु जी मेरे अवगुण चित न धरो…’ गाना शुरू किया।
जिसका अर्थ था कि पारस पत्थर तो लोहे के हर टुकड़े को अपने स्पर्श से सोना बनाता है फिर चाहे वह लोहे का टुकड़ा पूजा घर में रखा हो या फिर कसाई के दरवाजे पर पड़ा हो, अगर पारस लोहे की जगह देखने लगे तो फिर उसके पारस होने का क्या फायदा?
भजन सुनते ही स्वामी जी उस वेश्या के पास पहुंचे, जो रोते हुए भजन गा रही थी, स्वामी विवेकाकंद ने खुद अपने एक संस्मरण में इस बात का उल्लेख किया है कि उस दिन उन्होंने पहली बार वेश्या को देखा था, लेकिन उनके मन में उसके लिए ना तो कोई प्रेम जागा और ना ही उससे कोई घृणा या आकर्षण महसूस हुआ, उस दिन उन्हें पहली बार इस बात एहसास हुआ कि वो अपने मन पर काबू पा चुके हैं और मन और तन से पूर्ण संन्यासी बन चुके हैं।